लोकसभा में सरकार की ओर से कृषि मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने कहा कि हमारे पास 2015 के बाद का डेटा नहीं है. क्योंकि नेशनल क्राइक रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) को अभी कुछ राज्यों से डेटा प्राप्त करना बाकी है। नरेंद्र मोदी सरकार के पास किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा नहीं है। कृषि मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने कहा कि एनसीआरबी के पास डेटा आने के बाद इसकी जानकरी सदन को दी जाएगी। कांग्रेस सांसद तरुण गोगोई ने आरोप लगाया है कि किसानों के आत्महत्या के आंकड़े उपलब्ध नहीं करा कर सरकार डेटा छिपा रही है। (इनपुट आज तक )
इस भीषण ठंड में जब हम सब घर के अंदर बंद कमरे में बैठे हैं तब हमारे अन्नदाता दिल्ली के बार्डर पर खुले आसमान के नीचे अपने हक की आरपार की लड़ाई के लिए संघर्ष कर रहे हैं। किसानों का कहना है कि जब तक तीनों कृषि कानून पूरी तरह से रद नहीं किये जाते तब तक हटने वाले नहीं हैं। हम लोग कई माह का राशन लेकर आएं हैं। साथ ही कहा कि 26 जनवरी की पारेड में भी टैक्टर पर चढ़कर शामिल होंगे। आंदोलित किसानों का मानना है कि हम सच्चे राष्ट्रभक्त हैं, हमको इस राष्ट्रीय पर्व में शामिल होने का पूरा हक है। हमे रोकने के लिए सरकार चाहे जितने कुचक्र करे हम रूकने वाले नहीं हैं। अब तक सरकार और आंदोलनरत किसानों की बीच में कई दौर की वार्ता बेनतीजा रही। जबकि सरकार की तरह कहा गया है कि यदि कृषि कानूनों कोई त्रुटि है तो हम संशोधन करने व खुले मन से वार्ता करने को तैयार हैं।
तीन नए कृषि कानूनों को लेकर आंदोलन कर रहे किसानों के समर्थन में आए फाजिल्का के वकील अमरजीत सिंह (55) ने रविवार सुबह नेशनल हाईवे पर टीकरी बॉर्डर से करीब सात किलोमीटर दूर पकौड़ा चौक के पास बहादुरगढ़ में जहरीला पदार्थ खा लिया। पीजीआई, रोहतक में उपचार के दौरान उनकी मौत हो गई। उनके पास से प्रधानमंत्री मोदी को लिखा एक पत्र भी मिला है। इसमें उन्होंने कृषि कानूनों को किसान विरोधी बताया है। पत्र में लिखा है कि किसान मजदूर और आम आदमी की रोटी मत छीनिए, न्यायालय भी अपनी विश्वसनीयता खो चुका है।
गृह मंत्रालय के उन आंकड़ों के मुताबिक जो लोकसभा के पटल पर पिछले साल रखे गए, 2016 में भारत में 6,351 किसानों ने खुदकुशी की है। यानी हर रोज 17 किसानों ने खुदकुशी की है। यदि आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि 2015 में यह आंकड़ा 8,007 यानी हर दिन 22 किसान आत्महत्या कर रहे थे। यानी खुदकुशी के आंकड़ों में 21 फीसद की गिरावट है। वर्ष 2015 तक किसानों की खुदकुशी की रिपोर्ट अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो उसके वेबसाइट पर मौजूद है लेकिन 2016 से लेकर 2019 तक की कोई रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की गई है। किसानों की मौत का आंकड़ा स्पष्ट नहीं है। केंद्र सरकार के आंकड़े राज्य सरकारों के आंकड़ों से मिलते नहीं। अगर महाराष्ट्र सरकार के रिहैबिलिटेशन एंड रिलीफ डिपार्टमेंट के अनुसार अकेले महाराष्ट्र में 2015 से 2018 के चार साल में 12,004 किसानों ने खुदकुशी की। जबकि, अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2010 से 2014 के पांच साल में सिर्फ महाराष्ट्र में ही 8,009 किसानों ने ही अपनी जान दे दी।
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से: भारत में किसान आत्महत्या 1990 के बाद पैदा हुई स्थिति है जिसमें प्रतिवर्ष दस हज़ार से अधिक किसानों के द्वारा आत्महत्या की रपटें दर्ज की गई है। 1997 से 2006 के बीच 1,66,304 किसानों ने आत्महत्या की। भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलें नष्ट होना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का मुख्य कारण माना जाता रहा है। मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियाँ, समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फँसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएँ की है।
1990 ई. में प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार द हिंदू के ग्रामीण मामलों के संवाददाता पी. साईंनाथ ने किसानों द्वारा नियमित आत्महत्याओं की सूचना दी। आरंभ में ये रपटें महाराष्ट्र से आईं। जल्दी ही आंध्रप्रदेश से भी आत्महत्याओं की खबरें आने लगी। शुरुआत में लगा कि अधिकांश आत्महत्याएँ महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के कपास उत्पादक किसानों ने की हैं। लेकिन महाराष्ट्र के राज्य अपराध लेखा कार्यालय से प्राप्त आँकड़ों को देखने से स्पष्ट हो गया कि पूरे महाराष्ट्र में कपास सहित अन्य नकदी फसलों के किसानों की आत्महत्याओं की दर बहुत अधिक रही है। आत्महत्या करने वाले केवल छोटी जोत वाले किसान नहीं थे बल्कि मध्यम और बड़े जोतों वाले किसानों भी थे। राज्य सरकार ने इस समस्या पर विचार करने के लिए कई जाँच समितियाँ बनाईं। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य सरकार द्वारा विदर्भ के किसानों पर व्यय करने के लिए 110 अरब रूपए के अनुदान की घोषणा की। बाद के वर्षों में कृषि संकट के कारण महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, आंध्रप्रदेश, पंजाब, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी किसानों ने आत्महत्याएँ की। इस दृष्टि से 2009 अब तक का सबसे खराब वर्ष था जब भारत के राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय ने सर्वाधिक 17,368 किसानों के आत्महत्या की रपटें दर्ज कीं। सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ महाराष्ट्रए कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुई थी।
राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय के आँकड़ों के अनुसार भारत भर में 2008 ई. में 16,196 किसानों ने आत्महत्याएँ की थी। 2009 ई. में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में 1,172 की वृद्धि हुई। 2009 के दौरान 17368 किसानों द्वारा आत्महत्या की आधिकारिक रपट दर्ज हुई। राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय द्वारा प्रस्तुत किये गए आँकड़ों के अनुसार 1995 से 2011 के बीच 17 वर्ष में 7 लाख, 50 हजार, 860 किसानों ने आत्महत्या की है। भारत में धनी और विकसित कहे जाने वाले महाराष्ट्र में अब तक आत्महत्याओं का आँकड़ा 50 हजार 860 तक पहुँच चुका है। 2011 में मराठवाड़ा में 435, विदर्भ में 226 और खानदेश जलगाँव क्षेत्र में 133 किसानों ने आत्महत्याएँ की है। आंकड़े बताते हैं कि 2004 के पश्चात् स्थिति बद से बदतर होती चली गई। 1991 और 2001 की जनगणना के आँकड़ों को तुलनात्मक देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि किसानों की संख्या कम होती चली जा रही है। 2001 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में 70 लाख किसानों ने खेती करना बंद कर दिया। 2011 के आंकड़े बताते हैं कि पाँच राज्यों क्रमशः महाराष्ट्र,कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल 1534 किसान अपने प्राणों का अंत कर चुके हैं। सन् 2018 में देश भर में 10,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की।
आबादी के अनुपात में उत्तर प्रदेश में किसानों की आत्महत्या का प्रतिशत अपेक्षाकृत कम जरूर रहा है फिर भी वहाँ भी काफी तादाद में किसान आत्महत्या कर चुके हैं। एक खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश में सन् 2013 में किसानों की आत्महत्या के 750 मामले सामने आये थे। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में वर्ष 2014 में यह आंकड़ा महज 145 का था, लेकिन 2015 में 324 पर पहुँच गया था। सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा। देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

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