एमएसपी को लेकर संसद से सड़क तक हंगामा है, कितने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलती है


लखनऊः  किसान और कृषि विशेषज्ञों को लग रहा है कि कृषि बिल के बाद एमएसपी की व्यवस्था खत्म हो जायेगी। हालांकि सरकार इससे इनकार कर रही है। क्या एमएसपी से किसानों को लाभ मिलता है। लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी कृषि सुधार से संबंधित विधेयक पास हो गये। विपक्ष से लेकर किसान तक इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। 


किसानों के मन में सबसे बड़ा डर है कि अब उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का लाभ नहीं मिलेगा। विधेयकों में एमएसपी की बात नहीं है, जबकि देश के कृषि मंत्री के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बार-बार कह रहे हैं कि डैच् की सुविधा पहले जैसे ही रहेगी। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम भी सरकार से एमएसपी पर सवाल पूछ रहे हैं। आखिर यह एमएसपी है क्या। क्या सच में किसानों को इससे फायदा होता है, और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या किसानों को एमएसपी मिलती भी है। 


 

एमएसपी का इतिहास, भूगोल और गणित समझते हैं वह भी एक दम सरल शब्दों में। पहले जानिये एमएसपी है क्या, किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू है। अगर कभी फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल खरीदती है ताकि किसानों को नुकसान से बचाया जा सके। किसी फसल की एमएसपी पूरे देश में एक ही होती है और इसके तहत अभी 23 फसलों की खरीद की जा रही है। कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कृषि लागत और मूल्य आयोग ; कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइजेस ब्।ब्च्द्ध की अनुशंसाओं के आधार पर एमएसपी तय की जाती है। 

आजादी के बाद से ही देश के किसानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। किसानों को उनकी मेहनत और लागत के बदले फसल की कीमत बहुत कम मिल रही थी। कृषि जिंसों की खरीद-बिक्री राज्यों के अनुसार ही हो रही थी। जब अनाज कम पैदा होता तो कीमतों में खूब बढ़ोतरी हो जाती, ज्यादा होता तो गिरावट। इस स्थिति में सुधार के लिए वर्ष 1957 में केंद्र सरकार ने खाद्य-अन्न जांच समिति का गठन किया। इस समिति ने कई सुझाव दिये लिए उससे फायदा नहीं हुआ। तब सरकार ने अनाजों की कीमत तय करने के बारे में सोचा। इसके लिए वर्ष 1964 में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सचिव लक्ष्मी कांत झा (एलके झा) के नेतृत्व में खाद्य और कृषि मंत्रालय  अब ये दोनों मंत्रालय अलग-अलग काम करते हैं। खाद्य-अनाज मूल्य समिति का गठन किया। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का मत था कि किसानों को उनकी उपज के बदले कम से कम इतने पैसे मिलें कि उनका नुकसान न हो। तब देश के कृषि मंत्री थे चिदंबरम सुब्रमण्यम।

खाद्य-अनाज मूल्य समिति में एलके झा के साथ टीपी सिंह (सदस्यए योजना आयोग), बीएन आधारकर (आर्थिक मामलों के अतिरिक्त सचिव, वित्त मंत्रालय), एमएल दंतवाला (आर्थिक कार्य विभाग ) और एससी चौधरी (आर्थिक और सांख्यिकीय सलाहकार, खाद्य और कृषि मंत्रालय) भी शामिल थे। डॉ बीवी दूतिया (उप आर्थिक और सांख्यिकीय सलाहकार, खाद्य और कृषि मंत्रालय) को इस कमिटी का सचिव नियुक्त किया गया। कमिटी ने 24 दिसंबर 1964 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 24 दिसंबर 1964 को इस पर मुहर लगा दी, लेकिन कितनी फसलों को इसके दायरे में लाया जायेगा, यह तय होना अभी
बाकी था।




 

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