14 अगस्त, 1947 की शाम लॉर्ड माउंटबेटन कराची से दिल्ली लौटे तो वो अपने हवाई जहाज़ से मध्य पंजाब में आसमान की तरफ़ जाते हुए काले धुएं को साफ़ देख सकते थे। इस धुएं ने नेहरू के राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े क्षण की चमक को काफ़ी हद तक धुंधला कर दिया था।
14 अगस्त की शाम जैसे ही सूरज डूबा, दो संन्यासी एक कार में जवाहर लाल नेहरू के 17 यॉर्क रोड स्थित घर के सामने रुके, उनके हाथ में सफ़ेद सिल्क का पीतांबरम, तंजौर नदी का पवित्र पानी, भभूत और मद्रास के नटराज मंदिर में सुबह चढ़ाए गए उबले हुए चावल थे।
जैसे ही नेहरू को उनके बारे में पता चला, वो बाहर आए, उन्होंने नेहरू को पीतांबरम पहनाया, उन पर पवित्र पानी का छिड़काव किया और उनके माथे पर पवित्र भभूत लगाई, इस तरह की सारी रस्मों का नेहरू अपने पूरे जीवन विरोध करते आए थे लेकिन उस दिन उन्होंने मुस्कराते हुए संन्यासियों के हर अनुरोध को स्वीकार किया। थोड़ी देर बाद अपने माथे पर लगी भभूत धोकर नेहरू, इंदिरा गांधी, फ़िरोज़ गाँधी और पद्मजा नायडू के साथ खाने की मेज़ पर बैठे ही थे कि बगल के कमरे मे फ़ोन की घंटी बजी।
ट्रंक कॉल की लाइन इतनी ख़राब थी कि नेहरू ने फ़ोन कर रहे शख़्स से कहा कि उसने जो कुछ कहा उसे वो फिर से दोहराए, जब नेहरू ने फ़ोन रखा तो उनका चेहरा सफ़ेद हो चुका था। उनके मुँह से कुछ नहीं निकला और उन्होंने अपना चेहरा अपने हाथों से ढँक लिया। जब उन्होंने अपना हाथ चेहरे से हटाया तो उनकी आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं। उन्होंने इंदिरा को बताया कि वो फ़ोन लाहौर से आया था।
ट्रिस्ट विद डेस्टिनी
वहाँ के नए प्रशासन ने हिंदू और सिख इलाक़ों की पानी की आपूर्ति काट दी थी। लोग प्यास से पागल हो रहे थे, जो औरतें और बच्चे पानी की तलाश में बाहर निकल रहे थे। उन्हें मारा जा रहा था।लोग तलवारें लिए रेलवे स्टेशन पर घूम रहे थे ताकि वहाँ से भागने वाले सिखों और हिंदुओं को मारा जा सके।
फ़ोन करने वाले ने नेहरू को बताया कि लाहौर की गलियों में आग लगी हुई थी। नेहरू ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा, मैं आज कैसे देश को संबोधित कर पाऊंगा। मैं कैसे जता पाऊंगा कि मैं देश की आज़ादी पर ख़ुश हूँ, जब मुझे पता है कि मेरा लाहौर, मेरा ख़ूबसूरत लाहौर जल रहा है। इंदिरा गाँधी ने अपने पिता को दिलासा देने की कोशिश की। उन्होंने कहा आप अपने भाषण पर ध्यान दीजिए जो आपको आज रात देश के सामने देना है, लेकिन नेहरू का मूड उखड़ चुका था।

लाहौर में हिंदू इलाक़ों की जल आपूर्ति काटी गई
नेहरू एमओ मथाई अपनी किताब (रेमिनिसेंसेज ऑफ़ नेहरू एज) में लिखते हैं कि नेहरू कई दिनों से अपने भाषण की तैयारी कर रहे थे। जब उनके पीए ने वो भाषण टाइप करके मथाई को दिया तो उन्होंने देखा कि नेहरू ने एक जगह (डेट विद डेस्टिनी) मुहावरे का इस्तेमाल किया था।
मथाई ने रॉजेट का इंटरनेशनल शब्दकोश देखने के बाद उनसे कहा कि (डेट) शब्द इस मौके के लिए सही शब्द नहीं है क्योंकि अमरीका में इसका आशय महिलाओं या लड़कियों के साथ घूमने के लिए किया जाता है।
मथाई ने उन्हें सुझाव दिया कि वो डेट की जगह रान्डेवू या ट्रिस्ट शब्द का इस्तेमाल करें, लेकिन उन्होंने उन्हें ये भी बताया कि रूज़वेल्ट ने युद्ध के दौरान दिए गए अपने भाषण में (रान्डेवू) शब्द का इस्तेमाल किया है।
नेहरू ने एक क्षण के लिए सोचा और अपने हाथ से टाइप किया हुआ डेट शब्द काट कर (ट्रिस्ट, लिखा) नेहरू के भाषण का वो आलेख अभी भी नेहरू म्यूज़ियम लाइब्रेरी में सुरक्षित है।
जब पूरी दुनिया सो रही होगी
संसद के सेंट्रल हॉल में ठीक 11 बजकर 55 मिनट पर नेहरू की आवाज़ गूंजी, (बहुत सालों पहले हमने नियति से एक वादा किया था) अब वो समय आ पहुंचा है कि हम उस वादे को निभाएं, शायद पूरी तरह तो नहीं लेकिन बहुत हद तक ज़रूर, आधी रात के समय जब पूरी दुनिया सो रही है। भारत आज़ादी की सांस ले रहा है।
अगले दिन के अख़बारों के लिए नेहरू ने अपने भाषण में दो पंक्तियाँ अलग से जोड़ीं। उन्होंने कहा, हमारे ध्यान में वो भाई और बहन भी हैं जो राजनीतिक सीमाओं की वजह से हमसे अलग-थलग पड़ गए हैं और उस आज़ादी की ख़ुशियाँ नहीं मना सकते जो आज हमारे पास आई है। वो लोग भी हमारे हिस्से हैं और हमेशा हमारे ही रहेंगे चाहे जो कुछ भी हो।
जैसे ही रात के बारह बजे शंख बजने लगे। वहाँ मौजूद लोगों की आँखों से आंसू बह निकले और महात्मा गाँधी की जय के नारों से सेंट्रल हॉल गूंज गया।
सुचेता कृपलानी ने, जो साठ के दशक में उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। पहले अल्लामा इक़बाल का गीत (सारे जहाँ से अच्छा) और फिर बंकिम चंद्र चैटर्जी का (वंदे मातरम, गाया), जो बाद में भारत का राष्ट्रगीत बना। सदन के अंदर सूट पहने हुए एंग्लो . इंडियन नेता फ़्रैंक एन्टनी ने दौड़ कर जवाहरलाल नेहरू को गले लगा लिया।
संसद भवन के बाहर मूसलाधार बारिश में हज़ारों भारतीय इस बेला का इंतज़ार कर रहे थे। जैसे ही नेहरू संसद भवन से बाहर निकले मानो हर कोई उन्हें घेर लेना चाहता था। 17 साल के इंदर मल्होत्रा भी उस क्षण की नाटकीयता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके थे। जैसे ही रात के बारह बजे उन्हें ये देख कर ताज्जुब हुआ कि दूसरे लोगों की तरह उनकी आँखें भी भर आई थीं।
वहाँ पर मशहूर लेखक खुशवंत सिंह भी मौजूद थे जो अपना सब कुछ छोड़ कर लाहौर से दिल्ली पहुंचे थे। उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा था, (हम सब रो रहे थे और अनजान लोग खुशी से एक दूसरे को गले लगा रहे थे)। आधी रात के थोड़ी देर बाद जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद लॉर्ड माउंटबेटन को औपचारिक रूप से भारत के पहले गवर्नर जनरल बनने का न्योता देने आए।
माउंटबेटन ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। उन्होंने पोर्टवाइन की एक बोतल निकाली और अपने हाथों से अपने मेहमानों के गिलास भरे। फिर अपना गिलास भर कर उन्होंने अपना हाथ ऊँचा किया। (टु इंडिया) एक घूंट लेने के बाद नेहरू ने माउंटबेटन की तरफ अपना गिलास कर कहा, (किंग जॉर्ज षष्टम के लिए) नेहरू ने उन्हें एक लिफ़ाफ़ा दिया और कहा कि इसमें उन मंत्रियों के नाम हैं जिन्हें कल शपथ दिलाई जाएगी।
नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के जाने के बाद जब माउंटबेटन ने लिफ़ाफ़ा खोला तो उनकी हँसी निकल गई क्योंकि वो खाली था। जल्दबाज़ी में नेहरू उसमें मंत्रियों के नाम वाला कागज़ रखना भूल गए थे।
अगले दिन दिल्ली की सड़कों पर लोगों का सैलाब उमड़ा पड़ा था। शाम पाँच बजे इंडिया गेट के पास प्रिंसेज़ पार्क में माउंटबेटन को भारत का तिरंगा झंडा फहराना था। उनके सलाहकारों का मानना था कि वहाँ करीब तीस हज़ार लोग आएंगे लेकिन वहाँ पाँच लाख लोग इकट्ठा थे।
भारत के इतिहास में तब तक कुंभ स्नान को छोड़ कर एक जगह पर इतने लोग कभी नहीं एकत्रित हुए थे। बीबीसी के संवाददाता और कमेंटेटर विनफ़र्ड वॉन टामस ने अपनी पूरी ज़िदगी में इतनी बड़ी भीड़ नहीं देखी थी।
माउंटबेटन की बग्घी के चारों ओर लोगों का इतना हुजूम था कि वो उससे नीचे उतरने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। चारों ओर फैले हुए इस अपार जन समूह की लहरों ने झंडे के खंबे के पास बनाए गए छोटे से मंच को अपनी लपेट में ले लिया था।
भीड़ को रोकने के लिए लगाई गई बल्लियाँ, बैंड वालों के लिए बनाया गया मंच, बड़ी मेहनत से बनाई गई विशिष्ट अतिथियों की दर्शक दीर्घा और रास्ते के दोनों ओर बाँधी गई रस्सियाँ. हर चीज़ लोगों की इस प्रबल धारा में बह गईं थीं। लोग एक दूसरे से इतना सट कर बैठे हुए थे कि उनके बीच से हवा का गुज़रना भी मुश्किल था।
फ़िलिप टालबोट अपनी किताब एन अमेरिकन विटनेस में लिखते हैं, भीड़ का दवाब इतना था कि उससे पिस कर माउंटबेटन के एक अंगरक्षक का घोड़ा ज़मीन पर गिर गया। सब की उस समय जान में जान आई जब वो थोड़ी देर बाद खुद उठ कर चलने लगा।
माउंटबेटन की 17 वर्षीय बेटी पामेला भी दो लोगों के साथ उस समारोह को देखने पहुंचीं थीं। नेहरू ने पामेला को देखा और चिल्ला कर कहा लोगों के ऊपर से फाँदती हुई मंच पर आ जाओ।
पामेला भी चिल्लाई, मैं ऐसा कैसे कर सकती हूँ, मैंने ऊंची एड़ी की सैंडल पहनी हुई है। नेहरू ने कहा सैंडल को हाथ में ले लो। पामेला इतने ऐतिहासिक मौके पर ये सब करने के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकती थीं।
अपनी किताब (इंडिया रिमेंबर्ड) में पामेला लिखती हैं, मैंने अपने हाथ खड़े कर दिए। मैं सैंडल नहीं उतार सकती थी। नेहरू ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा तुम सैंडल पहने-पहने ही लोगों के सिर के ऊपर पैर रखते हुए आगे बढ़ो। वो विल्कुल भी बुरा नहीं मानेंगे। मैंने कहा मेरी हील उन्हें चुभेगी। नेहरू फिर बोले बेवकूफ़ लड़की सैंडल को हाथ में लो और आगे बढ़ो।
पहले नेहरू लोगों के सिरों पर पैर रखते हुए मंच पर पहुंचे और फिर उनकी देखा देखी भारत के अंतिम वॉयसराय की लड़की ने भी अपने सेंडिल को उतार कर हाथों में लिया और इंसानों के सिरों की कालीन पर पैर रखते हुए मंच तक पहुंच गईं। जहाँ सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल पहले से मौजूद थीं।
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डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिंस इपनी किताब (फ़्रीडम एट मिडनाइट) में लिखते हैं, मंच के चारों ओर उमड़ते हुए इंसानों के उस सैलाब में हज़ारों ऐसी औरतें भी थीं जो अपने दूध पीते बच्चों को सीने से लगाए हुए थीं। इस डर से कि कहीं उनके बच्चे बढ़ती हुई भीड़ में पिस न जाएं। जान पर खेल कर वो उन्हें रबड़ की गेंद की तरह हवा में उछाल देतीं और जब वो नीचे गिरने लगते तो उन्हें फिर उछाल देतीं। एक क्षण में हवा में इस तरह सैकड़ों बच्चे उछाल दिए गए। पामेला माउंटबेटन की आखें आश्चर्य से फटी रह गईं और वो सोचने लगीं। हे भगवान यहाँ तो बच्चों की बरसात हो रही है।
बग्घी से ही तिरंगे को सलाम
उधर अपनी बग्घी में कैद माउंटबेटन उससे नीचे ही नहीं उतर पा रहे थे। उन्होंने वहीं से चिल्ला कर नेहरू से कहा, बैंड वाले भीड़ के बीच में खो गए हैं। लेट्स होएस्ट द फ़्लैग।
वहाँ पर मौजूद बैंड के चारों तरफ़ इतने लोग जमा थे कि वो अपने हाथों तक को नहीं हिला पाए। मंच पर मौजूद लोगों ने सौभाग्य से माउंटबेटन की आवाज़ सुन ली। तिंरंगा झंडा फ़्लैग पोस्ट के ऊपर गया और लाखों लोगों से घिरे माउंटबेटन ने अपनी बग्घी पर ही खड़े-खड़े उसे सेल्यूट किया।
लोगों के मुंह से बेसाख़्ता आवाज़ निकली (माउंटबेटन की जय) पंडित माउंटबेटन की जय। भारत के पूरे इतिहास में इससे पहले किसी दूसरे अंग्रेज़ को ये सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था कि वो लोगों को इतनी दिली भावना के साथ ये नारा लगाते हुए सुने। उस दिन उन्हें वो चीज़ मिली जो न तो उनकी परनानी रानी विक्टोरिया को नसीब हुई थी और न ही उनकी किसी और संतान को।
भारत के इतिहास में किसी दूसरे अंग्रेज़ को ये सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ था कि वो लोगों को इतनी शिद्दत के साथ ये नारा लगाते हुए सुने। यह माउंटबेटन की कामयाबी को भारत की जनता का समर्थन था।
इंद्रधनुष ने किया आज़ादी का स्वागत
उस मधुर क्षण के उल्लास में भारत के लोग प्लासी की लड़ाई, 1857 के अत्याचार, जालियाँवाला बाग की ख़ूनी दास्तान सब भूल गए। जैसे ही झंडा ऊपर गया उसके ठीक पीछे एक इंद्रधनुष उभर आया। मानो प्रकृति ने भी भारत की आज़ादी के दिन का स्वागत करने और उसे और रंगीन बनाने की ठान रखी हो।
वहाँ से अपनी बग्घी पर गवर्नमेंट हाउज़ लौटते हुए माउंटबेटन सोच रहे थे सब कुछ ऐसा लग रहा है जैसे लाखों लोग एक साथ पिकनिक मनाने निकले हों और उन में से हर एक को इतना आनंद आ रहा हो जितना जीवन में पहले कभी नहीं आया था।
इस बीच माउंटबेटन और एडवीना ने उन तीन औरतों को अपनी बग्घी में चढ़ा लिया जो थक कर निढ़ाल हो चुकी थीं और उनकी बग्घी के पहिए के नीचे आते आते बची थीं। वो औरतें काले चमड़ों से मढ़ी हुई सीट पर बैठ गईं जिसकी गद्दियाँ इंग्लैंड के राजा और रानी के बैठने के लिए बनाई गई थीं।
उसी बग्घी में भारत के प्रधानमंत्री जवाहललाल नेहरू उसके हुड पर बैठे हुए थे क्योंकि उनके लिए बग्घी में बैठने के लिए कोई सीट ही नहीं बची थी।
अगले दिन माउंटबेटन के बेहद करीबी उनके प्रेस अटाशे एलन कैंपबेल जॉन्सन ने अपने एक साथी से हाथ मिलाते हुए कहा था, आखिरकार दो सौ सालों के बाद ब्रिटेन ने भारत को जीत ही लिया।
उस दिन पूरी दिल्ली में रोशनी की गई थी। कनॉट प्लेस और लाल किला हरे केसरिया और सफ़ेद रोशनी से
नहाये हुए थे। रात को माउंटबेटन ने तब के गवर्नमेंट हाउस और आज के राष्ट्रपति भवन ने 2500 लोगों के
लिए भोज दिया।
क्नाट प्लेस के सेंटर पार्क में हिंदी के जानेमाने साहित्यकार करतार सिंह दुग्गल ने आज़ादी का बहाना ले कर अपनी ख़ूबसूरत माशूका आएशा जाफ़री का पहली बार चुंबन लिया। करतार सिंह दुग्गल सिख थे और आएशा मुसलमान। बाद में दोनों ने भारी सामाजिक विरोध का सामना करते हुए शादी की। साभार (बीबीसी)










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